सच्चे संत के प्रति अपनी आसक्ति की धारा मोड़ दें

*आस्तिकता की आधारशिलाएँ*


सच्चे संत के प्रति अपनी आ सकती की धारा मोड़ दें


 असली संत की कोई बाहरी पहचान नहीं होती, किंतु जो सच्ची अभिलाषा लेकर भगवान की और दौड़ना चाहता है, उसे भगवान असली संत के पास पहुंचा ही देते हैं। स्वयं भगवान ही संत बन कर उसके जीवन की नाव पार लगाने आ जाते हैं। धोखा मनुष्य को वहीं होता है और वह इस कारण से ही होता है, जहाँ अपना अहंकार लेकर मनुष्य चलता है और उनसे अपने मन की इच्छाओं की पूर्ति कराना चाहता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि उसे उसमें भगवान की प्राप्ति की सच्ची अभिलाषा नहीं है ; क्योंकि भगवान को प्राप्त करने की अनन्य तथा सच्ची लालसा का उदय होते ही तत्क्षण - अन्य कोई भी कामना, जागतिक पदार्थ की उपलब्धि की रंच मात्र भी इच्छा रह नहीं जाएगी और ना ही अपनी विद्या -बुद्धि पर तथा अपने अंदर अच्छेपन का गर्व रहेगा। जहां यह दोनों चीजें हैं, वहां भगवान तमाशा देखते हैं। अन्यथा प्रथम तो उसे ले ही नहीं जाएंगे, जहां वह माया के प्रभाव में फिर पड़ सकता है और तो क्या इसके लिए नवीन प्रारब्ध तक का निर्माण हो जाता है ।इसे भगवतकृपाजनित प्रारब्ध कहते हैं और यह भगवतकृपाजनित प्रारब्ध बीच में ही कर्मजनित प्रारब्ध को स्थगित करके फ्लोन्मुख होकर असली संत के संपर्क में ला ही देता है ,जहां उनसे कभी धोखा होगा ही नहीं और यदि कोई बुरे प्रारब्धवश ऐसे संयोग।   में आ गया है तो उसकी अवश्य अवश्य रक्षा कर ही लेंगे किंतु वे करेंगे उसी की जिसमें एक निष्ठ भगवत प्राप्ति की लालसा है और जो सच्ची सच्ची दीनता लेकर चला है चल रहा है ऐसा भी देखा जाता है कि असली संत के संपर्क में आने पर भी उनसे निमित्त से तो नहीं अन्य निमित्त से पतन हो जाता है ऐसा क्यों होता है इसके तीन चार कारण हैं पहला यह है कि मनुष्य की भगवत प्राप्ति की लालसा वैसे ही है जैसे हम प्रदर्शनी में गए और वहां चीजें देखने लगे एक बढ़िया साड़ी खरीदी दूसरी हाथी दांत की एक चीज खरीदी तीसरी आंख इस प्रकार ९७ चीजें खरीदी भोग विलास की और ९८९९ और भी वस्तु खरीदी एक तुलसी की माला और एक बच्चन की पोती और एक भगवान के नाम का कोई चित्र जो भी मन में यह सोच कर कि हम अमुक संत के पास जाने वाले हैं यदि यह तीन चीजें नहीं रखेंगे तो न को बनेंगे क्या कहेंगे भी जो उन संत के पास रहते हैं और जीवन में अपना उद्धार कर लेना भी तो आवश्यक चीज है ही इस दृष्टि में भी एक सौ में से तीन चीजें तो अपने पास जरूरी है ही ठीक उसी प्रकार संत के असली संत के पास रहकर भी हमारे मन में भगवत प्राप्ति की लालसा इसी और सब की राय रहती है दूसरा कारण है कि मनमानी करने की विधि संत की आज्ञा ओं का पूरा पूरा निरादर करना कारण है उनसे भी कपट करने लग जाना उन्हें भी धनी को अपना लेना यदि वे तीनों कारण हमारे अंदर हमारे लिए बिल्कुल ही लागू नहीं पढ़ते तो किसी भी असली संत के संपर्क में आ जाने की अनंत अन्य किसी के निमित्त से हमारा पता नहीं होगा इस पर प्रश्न हो सकता है तो फिर क्या किया जाए तो उसका उत्तर यह है कि संत का संघ करें बस सच्चे अर्थ में भी अवश्य अवश्य संग करेंगे संघ का अर्थ होता है आ सकती हम किसी सच्चे संत के प्रति आसक्ति कर ले असली संत किसे माना जाए संसार में जिस व्यक्ति में हमें देवी संपदा के अधिक से अधिक कोण अभिव्यक्त दिखे विकसित किया तथा जिनके संग से हमारे अंदर के दैविक गुण विशेष रूप से बढ़ने लगे उसी को हम असली संत मानने और उनकी शरण में जाकर उनके प्रति अपनी आ सकती की धारा को मोड़ दें किंतु मोड सकेंगे तभी जब हम अपने जीवन को सुधारने के लिए प्रस्तुत होंगे एक अपनी जाने भगवत प्राप्ति की लालसा के अतिरिक्त अन्य संपूर्ण कामनाओं को साबित करने की पूरी पूरी चेष्टा करें तो इस प्रयास में असफल होने पर उनसे चाहे वे कामना कैसी भी हो उनसे ही लार्सन को छोड़कर बता दें कि तूने बातें करने की भूल ना करें उन पर ही छोड़ दे पूरी करें तो ठीक नहीं करें तो ठीक पर उसके लिए दूसरे के आगे हाथ ना पसारे ३ उनकी प्रत्येक आज्ञा के पीछे प्रत्येक के पालन में पूरी पूरी तत्परता से काम लेकिन तू यह ध्यान रखना चाहिए कि असली संत कभी भी शब्द रूप आत्मा का ज्ञान देते ही नहीं कभी हमें यह दिखे कि यह ज्ञात प्रेरणात्मक है तो उसका पालन कदापि न करें उसके ना पालन से ही वस्तुतः प्रसन्न होंगे यदि विश्लेषण है तो ४ इसका सीधा थी है कि उसे उस में भगवान की प्राप्ति की सच्ची अभिलाष नहीं है क्योंकि भगवान को प्राप्त करने की अनन्या तथा की लालसा का उदय होते ही अतिशय कोई कामना जागती पदार्थ की उपलब्धि की रेंज बात भी जा रह नहीं जाएगी और ना अपनी विद्यापति पर तथा अपने अंदर चेतन का गर्व रहेगा जाए ये दोनों चीजें हैं वहां भगवान तमाशा देखते हैं अनिता पतंग तो उसे ले ही नहीं जाएंगे जहां वे माया केसरवानी से पढ़ सकता है और तो क्या इसके लिए नवीन प्रारब्ध तक का निर्माण हो जाता है इसे भगवत कृपा जने प्रारब्ध कहते हैं और भगत के भजन का रक्त बीज में ही कर्म जनता रक्त को स्थगित करके फोन मुख होकर असली संत के संपर्क में लाश देता है जहां से कभी धोखा होगा ही नहीं और यदि बुरे वैसे गुरुकुल।


*।। श्रीराधाबाबा जु ।।*